Monday, 7 November 2011


इक   लड़की   चुस्त   चाल   चली   चलती   है  ,
निश्चिन्त   भाव   से   , थोड़ी   दूर   है   कार्यालय  ,
बंधन   टूट   रहे   समाज   के  ,  अच्छा   है   !!
अफसर   बन   जीना   ,  स्वतंत्र   होना   , अधिकार   है   उसका  ,
शर्माना   छूट  गया   ,  अच्छा   है   ,
घबराना   छूट   गया   ,  अच्छा    है   ,
जेब   में   पैसे   होना   ,  अच्छा   है   ,
मैं   दर्द   नहीं   चाहती  , अच्छा   है  ,
माँ  बन   बंधना   नहीं   चाहती   ,  अच्छा   है   ,
घूँघट   छूट   चुका  पहले   ही   , 
अब   चुनरी   छूटी  ,  अच्छा   है  ,
शादी   होगी   सिर्फ   स्वयंवर  , अच्छा   है   ,
कपड़े  होंगे   मर्ज़ी   के   ,  अच्छा   है  ,
सास   ससुर   का   रोभ   न   होगा   ,  अच्छा   है  ,
व्यापार   करूंगी   बड़ा अच्छा   है   ,
जग   मुट्ठी   में   होगा   अच्छा   है   ,
पर   इस   अछे   होने   में   खतरे   कितने   ?
इस   चक्कर   में   घर   टूटेंगे   कितने   ?
और   क्या   हम  हैं   अनुशाषित   इतने   ?
ये   प्रश्नचिन्ह   हटेंगे   कितने  ?
और   बच्चियां   सुरक्षित   होंगी   कब   और   कितनी   ?
कोई   न   जाने  , हालांकि   मेरी   भी   इक   बच्ची   है  !!

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